मुझको मेरे गाँव की होली याद बहुत आती है
मुझको मेरे गाँव की होली याद बहुत आती है
मुझको मेरे गाँव की होली याद बहुत आती है ।
बहती पुरवाई मानो दिल खींच गाँव ले जाती है ।।
मुझको मेरे गाँव की होली याद बहुत आती है ।।
फाल्गुन मॉस के आते ही इक अलग नशा छा जाता था ,
हंसी ठिठोली ताने बोली का माहौल बन जाता था ।
दादा बाबा ताऊ चाचा एक संग हो जाते थे ,
फगुआ गाते धूम मचाते मिलकर रंग जमाते थे ।।
वो मधुर तान और गाने की बोली कानो में अभी सुनाती है ,
मुझको मेरे गावं की होली याद बहुत आती है ।।
पूरे साल भले लड़ते हो, चाहे दुश्मनी जानी हो,
होली के दिन ऐसे मिलते जैसे रिश्ता बहुत पुरानी हो ।
चाची जो गली बकती थी , फूटे आँख नहीं सुहाती थी ,
पर उस दिन पकवान बनाकर, पहले मुझे खिलाती थी ।।
वो गुलगुला, गुझिया मालपुआ की खुशबू अब ललचाती है ,
मुझको मेरे गाँव की होली याद बहुत आती है ।।
वो पहली बार जब मैंने उसके गाल पर रंग लगाया था,
उस पल मानो जैसे कोई बड़ा खजाना पाया था ।
कुछ चिढ़ी थी वो कुछ शरमाई भी, मैं था डर से काँप गया,
बाल्टी कर रंग लेकर दौड़ी तो उसका मनसा भांप गया ।
जो शर्ट रंगी थी आज भी उसके होने का एहसास कराती है ,
मुझको मेरे गाँव की होली याद बहुत आती है ।।
बड़े हुए तो शहर आ गए रुपये बहुत कमाने को ,
तब से मौका नहीं मिला होली पर गाँव को जाने को ।
हरा लाल नारंगी पीला कितने रंग लुभाती थी,
गाँव की होली का रंग तन मन अन्दर तक रंग जाती थी ।।
शहर की होली का रंग मानो कपड़े ही रंग पाती है ,
मुझको मेरे गाँव की होली याद बहुत आती है ।।
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